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राजस्थान में भक्ति एवं सूफी आंदोलन
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अलखिया सम्प्रदाय की स्थापना किसने की?
व्याख्या : चुरू जिले के सुलाखियाँ गांव में जन्मे स्वामी लालगिरि ने निर्गुण अलखिया संप्रदाय की स्थापना 10वीं शताब्दी में की। इसकी प्रमुख पीठ बीकानेर में है। इस संप्राय का प्रमुख ग्रंथ अलख स्तुति प्रकाश’ है।
व्याख्या : चुरू जिले के सुलाखियाँ गांव में जन्मे स्वामी लालगिरि ने निर्गुण अलखिया संप्रदाय की स्थापना 10वीं शताब्दी में की। इसकी प्रमुख पीठ बीकानेर में है। इस संप्राय का प्रमुख ग्रंथ अलख स्तुति प्रकाश’ है।
व्याख्या : चुरू जिले के सुलाखियाँ गांव में जन्मे स्वामी लालगिरि ने निर्गुण अलखिया संप्रदाय की स्थापना 10वीं शताब्दी में की। इसकी प्रमुख पीठ बीकानेर में है। इस संप्राय का प्रमुख ग्रंथ अलख स्तुति प्रकाश’ है।
मुगल सम्राट अकबर द्वारा जिस सन्त को फतेहपुर सीकरी आमंत्रित किया गया था. वह था
व्याख्या: 1585 ३. म फतहपुर सीकरी की यात्रा के दौरान संत दाद ने मगल सम्राट अकबर से भेंट कर उसे अपने
विचारों से प्रभावित किया।
दादू जी के 52 शिष्य थे, जो 52 स्तम्भ कहलाते है।
व्याख्या: 1585 ३. म फतहपुर सीकरी की यात्रा के दौरान संत दाद ने मगल सम्राट अकबर से भेंट कर उसे अपने
विचारों से प्रभावित किया।
दादू जी के 52 शिष्य थे, जो 52 स्तम्भ कहलाते है।
व्याख्या: 1585 ३. म फतहपुर सीकरी की यात्रा के दौरान संत दाद ने मगल सम्राट अकबर से भेंट कर उसे अपने
विचारों से प्रभावित किया।
दादू जी के 52 शिष्य थे, जो 52 स्तम्भ कहलाते है।
निम्नलिखित संतों में से किसने अपने लेखन में मेवाती बोली का प्रयोग नहीं किया?
व्याख्या : लालदास (लालदासी संप्रदाय के प्रणेता) एवं चरणदास (चरणदासी सम्प्रदाय के प्रणेता) तथा सहजोबाई (चरणदासी महिला संत) मेवात (अलवर) क्षेत्र के संत थे। इनका साहित्य मेवाती में है। सुन्दरदास संत दादूदयाल के शिष्य थे। इनकी रचनाएं ढूंढाडी तथा ब्रज में हैं।
व्याख्या : लालदास (लालदासी संप्रदाय के प्रणेता) एवं चरणदास (चरणदासी सम्प्रदाय के प्रणेता) तथा सहजोबाई (चरणदासी महिला संत) मेवात (अलवर) क्षेत्र के संत थे। इनका साहित्य मेवाती में है। सुन्दरदास संत दादूदयाल के शिष्य थे। इनकी रचनाएं ढूंढाडी तथा ब्रज में हैं।
व्याख्या : लालदास (लालदासी संप्रदाय के प्रणेता) एवं चरणदास (चरणदासी सम्प्रदाय के प्रणेता) तथा सहजोबाई (चरणदासी महिला संत) मेवात (अलवर) क्षेत्र के संत थे। इनका साहित्य मेवाती में है। सुन्दरदास संत दादूदयाल के शिष्य थे। इनकी रचनाएं ढूंढाडी तथा ब्रज में हैं।
निम्न में से कौन दादू पंथ की शाखाओं में सम्मिलित नहीं है ?
व्याख्या : गौडीय संप्रदाय-यह अचिन्त्य भेदाभेद संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध वैष्णव संप्रदाय की शाखा है, जिसके
प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु थे। इस संप्रदाय का राजस्थान में प्रसिद्ध मंदिर जयपुर का गोविन्ददेवजी मंदिर है। जयपर नरेश मानसिंह इस संप्रदाय के अनुयायी थे, जिन्होंने वृंदावन में गोविन्ददेवजी का मंदिर बनवाया। गौड़ीय संप्रदाय की प्रमुख पीठ वृंदावन में है।
व्याख्या : गौडीय संप्रदाय-यह अचिन्त्य भेदाभेद संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध वैष्णव संप्रदाय की शाखा है, जिसके
प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु थे। इस संप्रदाय का राजस्थान में प्रसिद्ध मंदिर जयपुर का गोविन्ददेवजी मंदिर है। जयपर नरेश मानसिंह इस संप्रदाय के अनुयायी थे, जिन्होंने वृंदावन में गोविन्ददेवजी का मंदिर बनवाया। गौड़ीय संप्रदाय की प्रमुख पीठ वृंदावन में है।
व्याख्या : गौडीय संप्रदाय-यह अचिन्त्य भेदाभेद संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध वैष्णव संप्रदाय की शाखा है, जिसके
प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु थे। इस संप्रदाय का राजस्थान में प्रसिद्ध मंदिर जयपुर का गोविन्ददेवजी मंदिर है। जयपर नरेश मानसिंह इस संप्रदाय के अनुयायी थे, जिन्होंने वृंदावन में गोविन्ददेवजी का मंदिर बनवाया। गौड़ीय संप्रदाय की प्रमुख पीठ वृंदावन में है।
रामस्नेही सम्प्रदाय की शाहपुरा शाखा के संस्थापक थे
व्याख्या : रामस्नेही संप्रदाय की शाहपुरा शाखा के प्रवर्तक सन्त रामचरणदास थे, इनके बचपन का नाम रामकिशन था पांत महाराज कपारामजी ने इन्हें रामचरण नाम दिया। शाहपुरा नरेश राजा रणसिंह द्वारा इनके रहने के लिए शाहपरा में एक छतरी बनवायी गई। इनके उपदेश ‘अणभवाणी’ में संग्रहित है। शाहपरा (भीलवाडा) में स्थापित इस पीठ में होली के अवसर पर फूलडोल महोत्सव मनाया जाता है। इस संप्रदाय के पूजा स्थल रामद्वारा कहलाते है।
व्याख्या : रामस्नेही संप्रदाय की शाहपुरा शाखा के प्रवर्तक सन्त रामचरणदास थे, इनके बचपन का नाम रामकिशन था पांत महाराज कपारामजी ने इन्हें रामचरण नाम दिया। शाहपुरा नरेश राजा रणसिंह द्वारा इनके रहने के लिए शाहपरा में एक छतरी बनवायी गई। इनके उपदेश ‘अणभवाणी’ में संग्रहित है। शाहपरा (भीलवाडा) में स्थापित इस पीठ में होली के अवसर पर फूलडोल महोत्सव मनाया जाता है। इस संप्रदाय के पूजा स्थल रामद्वारा कहलाते है।
व्याख्या : रामस्नेही संप्रदाय की शाहपुरा शाखा के प्रवर्तक सन्त रामचरणदास थे, इनके बचपन का नाम रामकिशन था पांत महाराज कपारामजी ने इन्हें रामचरण नाम दिया। शाहपुरा नरेश राजा रणसिंह द्वारा इनके रहने के लिए शाहपरा में एक छतरी बनवायी गई। इनके उपदेश ‘अणभवाणी’ में संग्रहित है। शाहपरा (भीलवाडा) में स्थापित इस पीठ में होली के अवसर पर फूलडोल महोत्सव मनाया जाता है। इस संप्रदाय के पूजा स्थल रामद्वारा कहलाते है।
संत पीपा के गुरु थे
व्याख्या : संत पीपा का मूल नाम प्रतापसिंह था। यह गागरोण के शासक थे। इन्होंने दिल्ली के सुल्तान फ़िरोजशाह तुगलक को हराया था। यह निर्गुण भक्ति परंपरा के संत थे। इनके गुरु रामानन्द थे। संत पीपा राजस्थान में भक्ति आंदोलन की अलख जगाने वाले प्रथम संत थे। बाड़मेर के समदड़ी में इनका भव्य मंदिर है एवं दर्जी समुदाय इन्हें आराध्य मानता है। जहाँ चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को पीपा पंथी दर्जी समुदाय का मेला लगता है। इनकी मृत्यु टोडा रायसिंह टोंक में एक गुफ़ा में हुई जिसे संत पीपा की गुफ़ा कहा जाता है। इनकी छतरी गागरोण (झालावाड़) में कालीसिन्ध नदी के किनारे स्थित है। पीपा ने चिंतावणी की रचना की।
व्याख्या : संत पीपा का मूल नाम प्रतापसिंह था। यह गागरोण के शासक थे। इन्होंने दिल्ली के सुल्तान फ़िरोजशाह तुगलक को हराया था। यह निर्गुण भक्ति परंपरा के संत थे। इनके गुरु रामानन्द थे। संत पीपा राजस्थान में भक्ति आंदोलन की अलख जगाने वाले प्रथम संत थे। बाड़मेर के समदड़ी में इनका भव्य मंदिर है एवं दर्जी समुदाय इन्हें आराध्य मानता है। जहाँ चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को पीपा पंथी दर्जी समुदाय का मेला लगता है। इनकी मृत्यु टोडा रायसिंह टोंक में एक गुफ़ा में हुई जिसे संत पीपा की गुफ़ा कहा जाता है। इनकी छतरी गागरोण (झालावाड़) में कालीसिन्ध नदी के किनारे स्थित है। पीपा ने चिंतावणी की रचना की।
व्याख्या : संत पीपा का मूल नाम प्रतापसिंह था। यह गागरोण के शासक थे। इन्होंने दिल्ली के सुल्तान फ़िरोजशाह तुगलक को हराया था। यह निर्गुण भक्ति परंपरा के संत थे। इनके गुरु रामानन्द थे। संत पीपा राजस्थान में भक्ति आंदोलन की अलख जगाने वाले प्रथम संत थे। बाड़मेर के समदड़ी में इनका भव्य मंदिर है एवं दर्जी समुदाय इन्हें आराध्य मानता है। जहाँ चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को पीपा पंथी दर्जी समुदाय का मेला लगता है। इनकी मृत्यु टोडा रायसिंह टोंक में एक गुफ़ा में हुई जिसे संत पीपा की गुफ़ा कहा जाता है। इनकी छतरी गागरोण (झालावाड़) में कालीसिन्ध नदी के किनारे स्थित है। पीपा ने चिंतावणी की रचना की।
निम्नलिखित में से कौन-से संत राजस्थान के नहीं है?
व्याख्या : संत रामानन्द का जन्म प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में हुआ। इन्होंने समाज में ऊंच-नीच, जाति-पांति एवं छूआछूत का विरोध किया। कबीर, रैदास इनके शिष्य थे एवं इन्होंने श्री सम्प्रदाय स्थापित किया।
व्याख्या : संत रामानन्द का जन्म प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में हुआ। इन्होंने समाज में ऊंच-नीच, जाति-पांति एवं छूआछूत का विरोध किया। कबीर, रैदास इनके शिष्य थे एवं इन्होंने श्री सम्प्रदाय स्थापित किया।
व्याख्या : संत रामानन्द का जन्म प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में हुआ। इन्होंने समाज में ऊंच-नीच, जाति-पांति एवं छूआछूत का विरोध किया। कबीर, रैदास इनके शिष्य थे एवं इन्होंने श्री सम्प्रदाय स्थापित किया।
राजस्थान के किस संत और रामानंद के शिष्य ने अपने राज्य को त्याग कर गुरु मंडली में सम्मिलित हुए?
व्याख्या : गागरोण के राजा प्रताप राव खींची चौहान को जगतगुरु रामानंद संप्रदाय के रामानंद जी ने अपना शिष्य बनाया तब से उनका नाम संत पीपा हो गया।
व्याख्या : गागरोण के राजा प्रताप राव खींची चौहान को जगतगुरु रामानंद संप्रदाय के रामानंद जी ने अपना शिष्य बनाया तब से उनका नाम संत पीपा हो गया।
व्याख्या : गागरोण के राजा प्रताप राव खींची चौहान को जगतगुरु रामानंद संप्रदाय के रामानंद जी ने अपना शिष्य बनाया तब से उनका नाम संत पीपा हो गया।
‘निम्बार्क’ सम्प्रदाय की मुख्य पीठ कहाँ है?
व्याख्या : निम्बार्क सम्प्रदाय/हंस सम्प्रदाय की मुख्य पीठ सलेमाबाद अजमेर में है। इस पीठ की स्थापना 17वीं शताब्दी में रूपनगढ़ नदी के किनारे सलेमाबाद में परशुराम देवता ने की थी, इसीलिए इसे ‘परशुराम पुरी’ भी कहा जाता है।
व्याख्या : निम्बार्क सम्प्रदाय/हंस सम्प्रदाय की मुख्य पीठ सलेमाबाद अजमेर में है। इस पीठ की स्थापना 17वीं शताब्दी में रूपनगढ़ नदी के किनारे सलेमाबाद में परशुराम देवता ने की थी, इसीलिए इसे ‘परशुराम पुरी’ भी कहा जाता है।
व्याख्या : निम्बार्क सम्प्रदाय/हंस सम्प्रदाय की मुख्य पीठ सलेमाबाद अजमेर में है। इस पीठ की स्थापना 17वीं शताब्दी में रूपनगढ़ नदी के किनारे सलेमाबाद में परशुराम देवता ने की थी, इसीलिए इसे ‘परशुराम पुरी’ भी कहा जाता है।
निम्न में से कौन निरंजनी सम्प्रदाय के संस्थापक थे?
व्याख्या : स्वामी हरिदास का जन्म अलीगढ़ के निकट हुआ था। ये तानसेन के गुरु थे। इन्होंने वृंदावन में रहकर संगीत एवं भक्ति की साधना की।
व्याख्या : स्वामी हरिदास का जन्म अलीगढ़ के निकट हुआ था। ये तानसेन के गुरु थे। इन्होंने वृंदावन में रहकर संगीत एवं भक्ति की साधना की।
व्याख्या : स्वामी हरिदास का जन्म अलीगढ़ के निकट हुआ था। ये तानसेन के गुरु थे। इन्होंने वृंदावन में रहकर संगीत एवं भक्ति की साधना की।
बालिन्दजी के गुरु कौन थे
दादूदयाल जी बालिन्दन्दजी जी के गुरु थे
वह सोलहवीं शताब्दी (1544-1603) के उत्तरार्ध में रहते थे।
वह गुजरात के एक कवि-संत थे और वे एक धार्मिक सुधारक थे जिन्होंनेन्हों औपचारिकता और पुरोहितवाद के खिलाफ बात
की थी।
उनके काम को दादूदयाल की वाणी / दादूदयाल-रा दुहा के नाम से जाना जाता है।
उनके गीत हिंदी और राजस्थानी का मिश्रण होने के कारण ब्रज भाषा के नाम से जानी जाने वाली हिंदी बोली में हैं।
दादूदयाल जी बालिन्दन्दजी जी के गुरु थे
वह सोलहवीं शताब्दी (1544-1603) के उत्तरार्ध में रहते थे।
वह गुजरात के एक कवि-संत थे और वे एक धार्मिक सुधारक थे जिन्होंनेन्हों औपचारिकता और पुरोहितवाद के खिलाफ बात
की थी।
उनके काम को दादूदयाल की वाणी / दादूदयाल-रा दुहा के नाम से जाना जाता है।
उनके गीत हिंदी और राजस्थानी का मिश्रण होने के कारण ब्रज भाषा के नाम से जानी जाने वाली हिंदी बोली में हैं।
दादूदयाल जी बालिन्दन्दजी जी के गुरु थे
वह सोलहवीं शताब्दी (1544-1603) के उत्तरार्ध में रहते थे।
वह गुजरात के एक कवि-संत थे और वे एक धार्मिक सुधारक थे जिन्होंनेन्हों औपचारिकता और पुरोहितवाद के खिलाफ बात
की थी।
उनके काम को दादूदयाल की वाणी / दादूदयाल-रा दुहा के नाम से जाना जाता है।
उनके गीत हिंदी और राजस्थानी का मिश्रण होने के कारण ब्रज भाषा के नाम से जानी जाने वाली हिंदी बोली में हैं।
क़ाजी हमीदुद्दीन सुहरावर्दी को किस स्थान पर सर्वप्रथम क़ाजी बनाया गया था
नागौर में कयाम करने वालों में काजी हमीदुद्दीन नागौरी सुहरावर्दिया सिलसिले से जुड़े थे। भारत में सुहरावर्दिया सिलसिले की नींव १२ वीं सदी में शैख अबू नजीब अब्बदुल कादरि सुहशबर्दी ने रखी थी। हमीदुद्दीन नागौरी इन्हीं के खलीफाओं में से एक थे। इनका असली नाम शैख मुहम्मद इब्ने अता था। इनके पिता शैख अताउद्दीन, बुखारा के रहने वाले थे।
सन् १२०६ ई. में अताउद्दीन मुहम्मद गोरी के साथ भारत आये। पिता के देहांत के बाद हमीदुद्दीन ने नागौर के कजात का पद सम्हाला। नागौर के समीप रहल गाँव को आबाद किया। वर्तमान में यह “रोल’ के नाम से जाना जाता है। तीन वर्ष तक नागौर में रहने के बाद अचानक उन्हें वैराग्य की ओर झुकाव हो गया और वे पुनः बगदाद चले गये। वहाँ उनकी मुलाकात ख्वाजा कुतुबुद्दीन बाख्तियार काकी से हुई थी। इसी बीच वे मक्का व मदीना में ही रहे। अंततः दिल्ली आकर बस गये। सन् १२४४ ई. में यही इनकी मृत्यु हो गयी।
काजी हमीदुद्दीन नागौरी ऊँचे दर्जे के आलिम- फाजिल थे। सैयद अशरफ जहाँगीर ने जताइफे अशरफी में लिखा है कि ख्वाजा बख्तियार काकी ने इनकी खिलअत भी प्रदान की थी। इन्होंने “लवाएह’, तवालिए- शुमूस, राहतुल अवहि व इश्किया जैसे कई ग्रंथ लिखे। सूफियों की दर्सी किताबों में ये किताबें प्रतिदिन पढ़ी- पढ़ाई जाती थीं।
काजी हमीदुद्दीन नागौरी को चिश्तियों की तरह “समा’ की महफिलों से विशेष लगाव था। यह उनकी खानकाह की दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया था। काजी का मानना था कि जो ब्रम्हज्ञानी है, दुनिया से परहेज करते हैं, उनके लिए “समाअ’ में शिर्कत करना मुनासिब है। उन्होंने अपने सिलसिले के प्रचार पर बहुत कम ध्यान दिया। उनका बेटा मौलाना नसीहुद्दीन ने दिल्ली में रहकर इस सिलसिले का प्रचार- प्रसार का काम किया।
उनके मुरीदों में चार महत्वपूर्ण थे – शैख अहमद नहखानी, जो पेशे से बुनकर थे, शैख आदनुद्दीन, जो पेशे से कसाई थे, शैख शाही मोतब, जो बदायूं के निवासी थे तथा ख्वाजा महमूद मुईनदुज, जो लोम- वस्र सीने का धंधा करते थे।
काजी हमीदुद्दीन कम बोलते थे तथा प्रायः अपनी दोनों आँखे बंद रखते थे। उनके मुरीदों ने जब इसकी वजह जाननी चाही, तो वे बोले “”दो चश्म न दारम कि ई आलम रा बिह बीनम” (मेरे पास दो आँखें नहीं हैं, जिससे मैं इस संसार को भी देख सकूं।)
नागौर में कयाम करने वालों में काजी हमीदुद्दीन नागौरी सुहरावर्दिया सिलसिले से जुड़े थे। भारत में सुहरावर्दिया सिलसिले की नींव १२ वीं सदी में शैख अबू नजीब अब्बदुल कादरि सुहशबर्दी ने रखी थी। हमीदुद्दीन नागौरी इन्हीं के खलीफाओं में से एक थे। इनका असली नाम शैख मुहम्मद इब्ने अता था। इनके पिता शैख अताउद्दीन, बुखारा के रहने वाले थे।
सन् १२०६ ई. में अताउद्दीन मुहम्मद गोरी के साथ भारत आये। पिता के देहांत के बाद हमीदुद्दीन ने नागौर के कजात का पद सम्हाला। नागौर के समीप रहल गाँव को आबाद किया। वर्तमान में यह “रोल’ के नाम से जाना जाता है। तीन वर्ष तक नागौर में रहने के बाद अचानक उन्हें वैराग्य की ओर झुकाव हो गया और वे पुनः बगदाद चले गये। वहाँ उनकी मुलाकात ख्वाजा कुतुबुद्दीन बाख्तियार काकी से हुई थी। इसी बीच वे मक्का व मदीना में ही रहे। अंततः दिल्ली आकर बस गये। सन् १२४४ ई. में यही इनकी मृत्यु हो गयी।
काजी हमीदुद्दीन नागौरी ऊँचे दर्जे के आलिम- फाजिल थे। सैयद अशरफ जहाँगीर ने जताइफे अशरफी में लिखा है कि ख्वाजा बख्तियार काकी ने इनकी खिलअत भी प्रदान की थी। इन्होंने “लवाएह’, तवालिए- शुमूस, राहतुल अवहि व इश्किया जैसे कई ग्रंथ लिखे। सूफियों की दर्सी किताबों में ये किताबें प्रतिदिन पढ़ी- पढ़ाई जाती थीं।
काजी हमीदुद्दीन नागौरी को चिश्तियों की तरह “समा’ की महफिलों से विशेष लगाव था। यह उनकी खानकाह की दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया था। काजी का मानना था कि जो ब्रम्हज्ञानी है, दुनिया से परहेज करते हैं, उनके लिए “समाअ’ में शिर्कत करना मुनासिब है। उन्होंने अपने सिलसिले के प्रचार पर बहुत कम ध्यान दिया। उनका बेटा मौलाना नसीहुद्दीन ने दिल्ली में रहकर इस सिलसिले का प्रचार- प्रसार का काम किया।
उनके मुरीदों में चार महत्वपूर्ण थे – शैख अहमद नहखानी, जो पेशे से बुनकर थे, शैख आदनुद्दीन, जो पेशे से कसाई थे, शैख शाही मोतब, जो बदायूं के निवासी थे तथा ख्वाजा महमूद मुईनदुज, जो लोम- वस्र सीने का धंधा करते थे।
काजी हमीदुद्दीन कम बोलते थे तथा प्रायः अपनी दोनों आँखे बंद रखते थे। उनके मुरीदों ने जब इसकी वजह जाननी चाही, तो वे बोले “”दो चश्म न दारम कि ई आलम रा बिह बीनम” (मेरे पास दो आँखें नहीं हैं, जिससे मैं इस संसार को भी देख सकूं।)
नागौर में कयाम करने वालों में काजी हमीदुद्दीन नागौरी सुहरावर्दिया सिलसिले से जुड़े थे। भारत में सुहरावर्दिया सिलसिले की नींव १२ वीं सदी में शैख अबू नजीब अब्बदुल कादरि सुहशबर्दी ने रखी थी। हमीदुद्दीन नागौरी इन्हीं के खलीफाओं में से एक थे। इनका असली नाम शैख मुहम्मद इब्ने अता था। इनके पिता शैख अताउद्दीन, बुखारा के रहने वाले थे।
सन् १२०६ ई. में अताउद्दीन मुहम्मद गोरी के साथ भारत आये। पिता के देहांत के बाद हमीदुद्दीन ने नागौर के कजात का पद सम्हाला। नागौर के समीप रहल गाँव को आबाद किया। वर्तमान में यह “रोल’ के नाम से जाना जाता है। तीन वर्ष तक नागौर में रहने के बाद अचानक उन्हें वैराग्य की ओर झुकाव हो गया और वे पुनः बगदाद चले गये। वहाँ उनकी मुलाकात ख्वाजा कुतुबुद्दीन बाख्तियार काकी से हुई थी। इसी बीच वे मक्का व मदीना में ही रहे। अंततः दिल्ली आकर बस गये। सन् १२४४ ई. में यही इनकी मृत्यु हो गयी।
काजी हमीदुद्दीन नागौरी ऊँचे दर्जे के आलिम- फाजिल थे। सैयद अशरफ जहाँगीर ने जताइफे अशरफी में लिखा है कि ख्वाजा बख्तियार काकी ने इनकी खिलअत भी प्रदान की थी। इन्होंने “लवाएह’, तवालिए- शुमूस, राहतुल अवहि व इश्किया जैसे कई ग्रंथ लिखे। सूफियों की दर्सी किताबों में ये किताबें प्रतिदिन पढ़ी- पढ़ाई जाती थीं।
काजी हमीदुद्दीन नागौरी को चिश्तियों की तरह “समा’ की महफिलों से विशेष लगाव था। यह उनकी खानकाह की दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया था। काजी का मानना था कि जो ब्रम्हज्ञानी है, दुनिया से परहेज करते हैं, उनके लिए “समाअ’ में शिर्कत करना मुनासिब है। उन्होंने अपने सिलसिले के प्रचार पर बहुत कम ध्यान दिया। उनका बेटा मौलाना नसीहुद्दीन ने दिल्ली में रहकर इस सिलसिले का प्रचार- प्रसार का काम किया।
उनके मुरीदों में चार महत्वपूर्ण थे – शैख अहमद नहखानी, जो पेशे से बुनकर थे, शैख आदनुद्दीन, जो पेशे से कसाई थे, शैख शाही मोतब, जो बदायूं के निवासी थे तथा ख्वाजा महमूद मुईनदुज, जो लोम- वस्र सीने का धंधा करते थे।
काजी हमीदुद्दीन कम बोलते थे तथा प्रायः अपनी दोनों आँखे बंद रखते थे। उनके मुरीदों ने जब इसकी वजह जाननी चाही, तो वे बोले “”दो चश्म न दारम कि ई आलम रा बिह बीनम” (मेरे पास दो आँखें नहीं हैं, जिससे मैं इस संसार को भी देख सकूं।)