राजस्थान का मंदिर-शिल्प/शैलियाँ
1. राजस्थान में जो मंदिर मिलते हैं, उनमें सामान्यतः एक अलंकृत प्रवेश–द्वार होता है, उसे ‘तोरण–द्वार’ कहते हैं।
2. सभा–मण्डप– तोरण द्वार में प्रवेश करते ही उपमण्डप आता है। तत्पश्चात् विशाल आंगन आता है, जिसे ‘सभा–मण्डप’ कहते हैं।
3. मूल–नायक– मंदिर में प्रमुख प्रतिमा जिस देवता की होती है उसे ‘मूल–नायक’ कहते हैं।
4. गर्भ–गृह– सभा मण्डप के आगे मूल मंदिर का प्रवेश द्वार आता है। मूल मन्दिर को ‘गर्भ–गृह’ कहा जाता है, जिसमें ‘मूल–नायक’ की प्रतिमा होती है।
5. गर्भगृह के ऊपर अलंकृत अथवा स्वर्णमण्डित शिखर होता है।
6. प्रदक्षिणा पथ– गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा लगाने के लिए जो गलियारा होता है, उसे ‘पद–प्रदक्षिणा पथ’ कहा जाता है।
7. पंचायतन मंदिर- मूल नायक का मुख्य मंदिर चार अन्य लघु मंदिरों से परिवृत (घिरा) हो तो उसे “पंचायतन मंदिर” कहा जाता है।
8. तेरहवीं सदी तक राजपूतों के बल एवं शौर्य की भावना मन्दिर स्थापत्य में भी प्रतिबिम्बित होती है। अब मन्दिर के चारों ओर ऊँची दीवारें, बड़े दरवाजें तथा बुर्ज बनाकर दुर्ग स्थापत्य का आभास करवाया गया। इस प्रकार के मन्दिरों में रणकपुर का जैन मन्दिर, उदयपुर का एकलिंगजी का मन्दिर, नीलकण्ठ (कुंभलगढ़) मन्दिर प्रमुख हैं।
9. दुर्भाग्य से राजस्थान में सातवीं शताब्दी से पूर्व बने मन्दिरों के अवशेष ही प्राप्त होते हैं।
10. यहाँ मन्दिरों के विकास का काल सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य रहा। यह वह काल था, जब राजस्थान में अनेक मन्दिर बने।
11. इस काल में ही मन्दिरों की क्षेत्रीय शैलियाँ विकसित हुई। इस काल में विशाल एवं परिपूर्ण मन्दिरों का निर्माण हुआ।
12. लगभग आठवीं शताब्दी से राजस्थान में जिस क्षेत्रीय शैली का विकास हुआ, “गुर्जर–प्रतिहार अथवा महामारू” कहा गया है।
13. गुर्जर–प्रतिहार अथवा महामारू शैली के अन्तर्गत प्रारम्भिक निर्माण मण्डौर के प्रतिहारों, सांभर के चौहानों तथा चित्तौड़ के मौर्यों ने किया।
14. गुर्जर–प्रतिहार अथवा महामारू शैली के मन्दिरों में केकीन्द (मेड़ता) का नीलकण्ठेश्वर मन्दिर, किराडू का सोमेश्वर मन्दिर प्रमुख हैं।
15. इस क्रम को आगे बढ़ाने वालों में जालौर के गुर्जर प्रतिहार रहे और बाद में चौहानों, परमारों और गुहिलों ने मन्दिर शिल्प को समृद्ध बनाया।
16. इस युग के कुछ मन्दिर गुर्जर–प्रतिहार शैली की मूलधारा से अलग है, इनमें बाड़ौली का मन्दिर, नागदा में सास–बहू का मन्दिर और उदयपुर में जगत अम्बिका मन्दिर प्रमुख हैं।
17. इसी युग का सिरोही जिले में वर्माण का ब्रह्माण्ड स्वामी मन्दिर अपनी भग्नावस्था के बावजूद राजस्थान के सुन्दर मन्दिरों में से एक है। वर्माण का ब्रह्माण्ड स्वामी मन्दिर एक अलंकृत मंच पर अवस्थित है।
18. दक्षिण राजस्थान के इन मन्दिरों में क्रमबद्धता एवं एकसूत्रता का अभाव दिखाई देता है। इन मन्दिरों के शिल्प पर गुजरात का प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है। इन मन्दिरों में विभिन्न शैलीगत तत्वों एवं परस्पर विभिन्नताओं के दर्शन होते हैं।
19. ग्यारहवीं से तेरहवीं सदी के बीच निर्मित होने वाले राजस्थान के मन्दिरों को श्रेष्ठ समझा जाता है क्योंकि यह मन्दिर–शिल्प के उत्कर्ष का काल था।
20. ग्यारहवीं से तेरहवीं सदी के बीच के इस युग में राजस्थान में काफी संख्या में बड़े और अलंकृत मन्दिर बने, जिन्हें सोलंकी या मारु गुर्जर शैली के अन्तर्गत रख जा सकता है।
21. इस शैली के मन्दिरों में ओसियाँ का सच्चिया माता मन्दिर, चित्तौड़ दुर्ग स्थित समिधेश्वर मन्दिर आदि प्रमुख है।
22. इस शैली के द्वार सजावटी है। खंभे अलंकृत, पतले, लम्बे और गोलाई लिये हुये है, गर्भगृह के रथ आगे बढ़े हुये है। ये मन्दिर ऊँची पीठिका पर बने हुये हैं।
23. राजस्थान में जैन धर्म के अनुयायियों ने अनेक जैन मन्दिर बनवायें, जो वास्तुकला की दृष्टि से अभूतपूर्व हैं।
24. राजस्थान के जैन मंदिरों में विशिष्ट तल विन्यास, संयोजन और स्वरूप का विकास हुआ जो इस धर्म की पूजा–पद्धति और मान्यताओं के अनुरूप था।
25. राजस्थान के जैन मन्दिरों में सर्वाधिक प्रसिद्ध देलवाड़ा (माउंट आबू) के मन्दिर हैं। इनके अतिरिक्त रणकपुर, ओसियाँ, जैसलमेर आदि स्थानों के जैन मन्दिर प्रसिद्ध हैं।
26. साथ ही राजस्थान के जैन मन्दिरों में पाली जिले में सेवाड़ी, घाणेराव, नाडौल–नारलाई, सिरोही जिले में वर्माण, झालावाड़ जिले में चाँदखेड़ी और झालरापाटन, बूँदी में केशोरायपाटन, करौली में श्रीमहावीर जी आदि स्थानों के जैन मन्दिर प्रमुख हैं।
27. बाड़मेर जिले में स्थित किराडू प्राचीन मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ का सोमेश्वर मन्दिर शिल्पकला के लिए विख्यात है। वीर रस, शृंगार रस, युद्ध, नृत्य, कामशात्र, रुप इत्यादि की भाव–भंगिमा युक्त मूर्तियाँ शिल्पकला की दृष्टि से अनूठी हैं।
28. किराडू को कामशास्त्र की मूर्तियों के कारण ‘राजस्थान का खजुराहो’ कहा जाता है।
29. शिल्पकला के लिए विख्यात किराडू मन्दिर ग्यारहवीं–बारहवीं शताब्दी के बने हुए हैं।
30. एकलिंगजी का मन्दिर उदयपुर शहर के निकट नाथद्वारा राजमार्ग पर कैलाशपुरी नामक गाँव में बना हुआ है।
31. एकलिंगजी का मन्दिर मेवाड़ महाराणाओं के इष्टदेव भगवान् शिव का एक लकुलीश मन्दिर है।
32. एकलिंगजी मन्दिर का निर्माण आठवीं शताब्दी में मेवाड़ के गुहिल शासक बप्पा रावल ने करवाया था तथा इसे वर्तमान स्वरूप महाराणा रायमल ने दिया था।
33. एकलिंगजी मन्दिर के मुख्य भाग में काले पत्थर से बनी एकलिंगजी की चतुर्मुखी प्रतिमा है।
34. किसी भी साहसिक कार्य के लिए प्रस्थान करने से पूर्व मेवाड़ के शासक एकलिंगजी मन्दिर में आकर आशीर्वाद लेते थे।
35. एकलिंग जी को मेवाड़ राजघराने का कुलदेवता माना जाता था, जबकि यहाँ का राजा स्वयं को इनका दीवान मानते थे।
36. एकलिंगजी मन्दिर के अहाते में कुंभा द्वारा निर्मित विष्णु मंदिर भी है, जिसे लोग मीराबाई का मन्दिर कहते हैं।
37. एकलिंगजी में शिवरात्रि को प्रतिवर्ष मेला लगता है।
38. कैला देवी मन्दिर का मन्दिर करौली से 26 किमी दूर अवस्थित है।
39. कैला देवी का मूल मंदिर खींची राजपूतों का है, जिसे कालान्तर में यादव वंश के शासक भंवरपाल ने संगमरमर से निर्मित करवाया था।
40. कैला देवी राजपूतों की कुलदेवी है।
41. कैला देवी मुख्य मन्दिर में कैलादेवी (महालक्ष्मी) एवं चामुण्डा देवी की प्रतिमाएँ स्थापित हैं।
42. धार्मिक आस्था के प्रमुख केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित कैला देवी मन्दिर में लाखों दर्शनार्थी प्रतिवर्ष आते हैं। इसलिए यहाँ लगने वाले मेले को लक्खी मेला कहा जाता है।
43. राजपूत, मीणा आदि कैलादेवी के प्रमुख भक्त माने जाते हैं।
44. कैला देवी मन्दिर में एक भैरों मन्दिर और हनुमान मन्दिर (लांगुरिया) भी स्थित है।
45. कैला देवी मन्दिर में लगने वाले मेले में लांगुरिया गीत गाये जाते हैं।
46. देशभर में विख्यात रणथम्भौर का त्रिनेत्र गणेश मन्दिर सवाई माधोपुर शहर के निकट स्थित रणथम्भौर के किले में स्थित है।
47. त्रिनेत्र गणेश की प्रतिमा में सिन्दूर लेपन की मात्रा अधिक होने के कारण मूर्ति का वास्तविक स्वरूप जानना कठिन है, पर इतना निश्चित है कि गणेशजी के मुख की ही पूजा की जाती है। गर्दन, हाथ, शरीर, आयुध व अन्य अवयव इस प्रतिमा में नहीं है।
48. विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर त्रिनेत्र गणेश जी को प्रथम पाती पहुँचाकर निमन्त्रित करने की सुदीर्घ परम्परा है।
49. जयपुर का गोविन्ददेवजी मन्दिर गौड़ीय सम्प्रदाय का प्रमुख मन्दिर है। वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी इनके बालरूप की पूजा करते हैं, तो गौड़ीय सम्प्रदाय वाले युगल रूप अर्थात् राधाकृष्ण के रूप में पूजते हैं।
50. जयपुर के गोविन्ददेव जी की यह मूर्ति सवाई जयसिंह द्वारा वृन्दावन से लाकर जयपुर में प्रतिष्ठापित की गई थी।
51. जयपुर के गोविन्ददेव जी का मंदिर जगन्नाथपुरी, ब्रज और ढूँढाड़ क्षेत्र की परम्पराओं का सुन्दर संयोजन प्रस्तुत करता है।
52. आमेर में स्थित जगतशिरोमणि मन्दिर का निर्माण कछवाहा शासक मानसिंह की पत्नी कंकावती ने अपने पुत्र जगतसिंह की स्मृति में करवाया था।
53. कहा जाता है जगतशिरोमणि मन्दिर में प्रतिष्ठित काले पत्थर की कृष्ण की मूर्ति वही मूर्ति है, जिसकी मीरा चित्तौड़ में आराधना किया करती थी। आमेर के राजा मानसिंह इसे चित्तौड़ से लेकर आए थे।
54. जगतशिरोमणि मंदिर अपने उत्कृष्ट शिल्प एवं सौन्दर्य के कारण आमेर का सबसे अधिक विख्यात मंदिर है।
55. उदयपुर में स्थित जगदीश मन्दिर शिल्पकला की दृष्टि से अनूठा है। इसका निर्माण 1651 में महाराणा जगतसिंह ने करवाया था।
56. उदयपुर के जगदीश मन्दिर में भगवान जगदीश (विष्णु) की काले पत्थर से निर्मित पाँच फीट ऊँची प्रतिमा स्थापित है।
57. जगदीश मन्दिर पंचायतन शैली का है। चार लघु मंदिरों से परिवृत होने के कारण इसे पंचायतन कहा गया है। मन्दिर के चारों कोनों में शिव पार्वती, गणपति, सूर्य तथा देवी के चार लघु मन्दिर तथा गर्भगृह के सामने गरूड़ की विशाल प्रतिमा है।
58. भगवान् जगदीश का विशाल और शिखरबन्द मन्दिर एक ऊँचे स्थान पर बना हुआ होने के कारण बड़ा भव्य दिखता है। इस मन्दिर के बाहरी भाग में चारों ओर अत्यन्त सुन्दर शिल्प बना हुआ है।
59. कर्नल टॉड, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, कविराज श्यामलदास आदि ने जगदीश मन्दिर के शिल्प की उत्कृष्टता की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।
60. झालरापाटन के मध्य अवस्थित विशाल सूर्य मंदिर में सूर्य और विष्णु के सम्मिलित भाव की एक ही प्रतिमा मुख्य रथिका में है।
61. झालरापाटन के सूर्य मंदिर के गर्भगृह के बाहर शिव की ताण्डव नृत्यरत प्रतिमा और मातृकाओं की प्रतिमाएँ हैं।
62. झालरापाटन का सूर्य मंदिर मूल रूप से दसवीं सदी का है, गर्भगृह की रथिका में त्रिमुखी सूर्य प्रतिमा है, जिसमें विष्णु का भाव मिश्रित है।
63. सफेद संगमरमर से निर्मित भारतीय शिल्पकला की उत्कृष्टता तथा जैन संस्कृति के वैभव और उदारता को प्रकट करने वाले देलवाडा़ के जैन मन्दिर सिरोही जिले में आबू पर्वत पर स्थित है।
64. देलवाडा़ स्थित जैन मन्दिरों में दो मन्दिर प्रमुख है। प्रथम मन्दिर 1031 ई में गुजरात के चालुक्य राजा भीमदेव के मन्त्री विमलशाह ने बनवाया था। यह मन्दिर प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव को समर्पित है। इस मन्दिर को विमलवसही के नाम से भी जाना जाता है।
65. देलवाडा़ स्थित दूसरा प्रमुख जैन मन्दिर 22वें जैन तीर्थंकर नेमिनाथ का है, जिसका निर्माण वास्तुपाल और तेजपाल द्वारा 1230 में करवाया गया था। इस मन्दिर को लूणवसही के नाम से भी जाना जाता है।
66. देलवाडा़ के जैन मन्दिरों के मंडपों, स्तम्भों, छतरियों तथा वेदियों के निर्माण में श्वेत पत्थर पर इतनी बारीक एवं भव्य खुदाई की गई है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। वस्तुतः यह मन्दिर सम्पूर्ण भारत में कलात्मकता में बेजोड़ है।
67. चित्तौड़ जिले में स्थित बाड़ोली शिव मन्दिर पंचायतन शैली के मन्दिर के रूप में विख्यात है। इसमें मुख्य मूर्तियाँ शिव-पार्वती और उनके अनुचरों की है।
68. ऐसा माना जाता है कि बाड़ोली के शिव मन्दिर का निर्माण हूण शासक तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल ने करवाया था।
69. बाड़ोली के शिव मन्दिर को प्रकाश में लाने का श्रेय जेम्स टॉड को दिया जाता है।
70. पुष्कर में स्थित ब्रह्माजी का मन्दिर राजस्थान के प्राचीनतम मन्दिरों में से एक है और पूरे भारत में कुछ वर्षों पूर्व तक यह ब्रह्माजी अकेला मन्दिर था।
71. पुष्कर के ब्रह्मा मन्दिर के अन्दर ब्रह्माजी की चतुर्मुखी मूर्ति प्रतिष्ठित है।
72. भण्डदेवरा का शिव मन्दिर बारां जिले के रामगढ़ में स्थित है।
73. भण्डदेवरा मन्दिर में उत्कीर्ण मिथुन मुद्रा की आकृतियाँ इसे खजुराहो के समकक्ष रखती है। इसलिए इस शिव मन्दिर को ‘हाड़ौती का खजुराहो’ कहा जाता है।
74. भण्डदेवरा का शिव देवालय पंचायतन शैली में बना हुआ है।
75. बारां के भण्डदेवरा मन्दिर का निर्माण मेदवंशीय राजा मलय वर्मा ने दसवीं शताब्दी में करवाया था।
76. रणकपुर का जैन मन्दिर पाली जिले में स्थित है, यह अपनी अद्भुत शिल्पकला एवं भव्यता के साथ आध्यात्मिकता लिए हुए है। यह मन्दिर अपनी शिल्पकला के साथ ही अध्यात्म एवं शांति का केन्द्र है।
77. रणकपुर का जैन मन्दिर प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है।
78. रणकपुर जैन मन्दिर का निर्माण महाराणा कुंभा के शासनकाल (1433-1468) में धरणशाह नामक एक जैन व्यापारी ने, प्रसिद्ध विशेषज्ञ देपाक के निर्देशन में करवाया था।
79. रणकपुर का जैन मन्दिर 1444 खंभों पर टिका हुआ है। इसलिए इसे ‘खंभों का अजायबघर’ कहा जाता है।
80. रणकपुर जैन मन्दिर में मूल गर्भगृह में आदिनाथ की चारमुखी मूर्ति लगी हुई है। इसलिए यह मन्दिर ‘चौमुखा मन्दिर’ भी कहलाता है।
81. भीलवाड़ा जिले में स्थित शाहपुरा में रामस्नेही सम्प्रदाय की मुख्य पीठ स्थित है, जिसे रामद्वारा कहा जाता है।
82. शाहपुरा में रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक स्वामी रामचरण का समाधिस्थल तथा एक विशाल रामद्वारा बना हुआ है।
83. शाहपुरा में रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक स्वामी रामचरण के समाधि स्थल पर बारहदरी बनी है, जिस पर कलात्मक बारह स्तंभ एवं बारह दरवाजे लगे हुए हैं।
84. शाहपुरा के रामद्वारा परिसर में रामस्नेही सम्प्रदाय के आचार्यों और शाहपुरा के दिवंगत राजाओं की छतरियाँ बनी हुई हैं।
85. शाहपुरा के रामस्नेही सम्प्रदाय के रामद्वारा में प्रतिवर्ष फूलडोल उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।
86. आमेर में स्थित शिलादेवी मन्दिर का निर्माण कछवाहा शासक मानसिंह (1589-1614) ने करवाया था।
87. आमेर का राजा मानसिंह बंगाल को जीतकर शिलादेवी की मूर्ति को आमेर लाया था।
88. आमेर में स्थित शिलादेवी मन्दिर के कपाट चाँदी के बने हुए हैं, जिन पर विद्या देवियाँ व नवदुर्गा का चित्रण किया गया है।
89. झालावाड़ जिले के झालरापाटन में स्थित शीतलेश्वर मन्दिर राजस्थान के तिथियुक्त मन्दिरों में सबसे प्राचीन (689 ई.) हैं।
90. झालरापाटन का शीतलेश्वर मन्दिर चन्द्रभागा नदी के तट पर स्थित है।
91. झालरापाटन के शीतलेश्वर मन्दिर के भग्नावशेषों में केवल गर्भगृह और छत रहित अंतराल ही मिलता है।
92. पुष्टिमार्गीय वैष्णवों का प्रमुख तीर्थस्थल (प्रधान पीठ) श्रीनाथजी मन्दिर है जो राजसमन्द जिले के नाथद्वारा में स्थित है।
93. श्रीनाथद्वारा के श्रीनाथजी मन्दिर में कृष्ण के बालरूप की उपासना की जाती है।
94. औरगंजेब द्वारा हिन्दू मूर्तियों एवं मन्दिरों को तुड़वाने पर मथुरा से मंदिर के तिलकायत दाउजी महाराज के नेतृत्त्व में वैष्णव भक्त श्रीनाथजी की मूर्ति को सिहाड़ (आधुनिक नाथद्वारा) लाए थे, जहाँ उदयपुर के महाराणा राजसिंह ने उन्हें शरण देकर यहाँ मूर्ति को प्रतिष्ठित किया था।
95. श्रीनाथद्वारा के मन्दिर में अष्टछाप कवियों के पद शास्त्रीय संगीत में गाये जाते हैं, जिसे ‘हवेली संगीत’ कहा जाता है।
96. श्रीनाथद्वारा के मन्दिर में श्रीनाथजी के स्वरूप के पीछे कृष्णलीला विषयक चित्रों का कपड़े का पट् लगाया जाता है, जिसे ‘पिछवाई’ कहा जाता है।
97. जोधपुर जिले के ओसियाँ में सच्चिया माता का बारहवीं सदी का विशाल और भव्य मन्दिर स्थित है।
98. ओसियाँ का सच्चिया माता मन्दिर पंचायतन शैली का है, जिसके मन्दिर के कोनों पर विष्णु, शिव व सूर्य के मन्दिर बने हुए हैं, जो स्थापत्य शिल्प के उत्कृष्ट नमूने हैं।
99. ओसियाँ स्थित सच्चिया माता हिन्दुओं और ओसवाल समाज दोनों की ही पूज्य देवी है।
100. ओसियाँ के मन्दिरों में शैलीगत विविधता मिलती है। इनमें अलंकरण काफ़ी मात्रा में है। यहाँ के मन्दिरों के दरवाजों पर पौराणिक तथा लोक कथाओं का चित्रण किया गया है।
101. ओसियाँ के मन्दिर परिसर में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का एक सुन्दर मन्दिर है, जो प्रतिहारकालीन है। इस मन्दिर के तोरण भव्य हैं और स्तम्भों पर जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण है।
102. उदयपुर जिले में कैलाशपुरी के पास नागदा में सास-बहू का प्रसिद्ध मन्दिर बना हुआ है।
103. सास–बहू का मन्दिर एक युगल मन्दिर (दो मंदिरों का समूह) है। इनमें बड़ा मन्दिर (सास का मन्दिर) दस सहायक देव मन्दिरों से घिरा हुआ है, जबकि छोटा मंदिर (बहू का मन्दिर) पंचायतन प्रकार का है।
104. नागदा का सास–बहू का मन्दिर वस्तुतः सहस्त्रबाहु मंदिर है।
105. नागदा के सास–बहू के मन्दिर विष्णु को समर्पित है तथा दसवीं सदी के बने हुए हैं, जो श्वेत पत्थर के चौकोर चबूतरों पर निर्मित है।
106. नागदा के सास-मन्दिर का शिखर ईंटों का है तथा शेष मन्दिर संगमरमर का है। इस मंदिर के स्तंभ, उत्कीर्ण शिलापट्ट एवं मूर्तियों सभी उत्कृष्ट शिल्पकला के उदाहरण हैं।
आभानेरी और राजोरगढ़ का कलात्मक वैभव:
- आभानेरी:
- यह उत्तरी राजस्थान में दौसा जिले का एक गाँव है, इसे ‘द सिटी ऑफ़ ब्राइटनेस’ भी कहा जाता है।
- राजस्थान का यह प्राचीन गांव अपने गुप्तोत्तर या प्रारंभिक मध्ययुगीन स्मारकों, चांद बावड़ी और हर्षत माता मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
- इस गांव की स्थापना 9वीं शताब्दी में गुर्जर साम्राज्य के महाराज राजा चंद ने की थी।
- राजोरगढ़:
- यह राजस्थान के अलवर जिले का एक गाँव है। प्राचीन काल में यह स्थान राज्यपुरा, परानगर (पार्श्वनगर), नीलकंठ आदि के नाम से जाना जाता था। नीलकंठ प्रसिद्ध नीलकंठेश्वर शिव मंदिर से लिया गया एक नाम है।
- प्रतिहार वंश यानि राजोर अभिलेख (अलवर) के गुर्जरों का प्रतिहार वंश।
- इतिहासकार राम शंकर त्रिपाठी कहते हैं कि राजोर शिलालेख प्रतिहारों के गुर्जर मूल की पुष्टि करता है।
- लगभगआठवींशताब्दीसेराजस्थानमेंजिसक्षेत्रीयशैलीकाविकासहुआ, “गुर्जर–प्रतिहारअथवामहामारू”कहागयाहै।
- गुर्जर–प्रतिहारअथवामहामारूशैलीकेअन्तर्गतप्रारम्भिकनिर्माणमण्डौरकेप्रतिहारों, सांभरकेचौहानोंतथाचित्तौड़केमौर्योंनेकिया।
- गुर्जर–प्रतिहारअथवामहामारूशैलीकेमन्दिरोंमेंकेकीन्द (मेड़ता) कानीलकण्ठेश्वरमन्दिर, किराडूकासोमेश्वरमन्दिरप्रमुखहैं।